एक दिन मैंने “खुशी” से पूछा:-
ऐ “खुशी” तू कहाँ मिलती है
क्या तेरा कोई पक्का पता है?
क्यों बन बैठी है अनजानी
आखिर क्या है तेरी कहानी?
सरोज (मैंने) ने कहाँ-कहाँ नहीं ढूंढा तुझको
पर तू कहीं न मिली मुझको।
ढूंढा ऊँची सोसाइटी के मकानों में
बडे-बडे मॉल की दुकानों में।
चाऊमीन, बर्गर, पिज़्ज़ा जैसे विदेशी पकवानों में
टाटा, अंबानी और अडानी जैसे चोटी के धनवानों में।
बाकी सब भी खुशी ही ढूंढ रहे थे,
बल्कि “सरोज” से ही पूछ रहे थे।
उम्र अब ढलान पर है,
हौंसला अब थकान पर है।
मैं भी हार नही मानूंगी
खुशी के रहस्य को जानूंगी।
बचपन में मिला करती थी,
सरोज साथ रहा करती थी।
पर जब से मेरे कर्तव्य और ज़िम्मेदारियों की सीढ़ी मुझसे बड़ी हो गई
मेरी खुशी मुझसे जुदा हो गई।
मैं फिर भी नही हारी।
मैंने अपने अन्दर की पीड़ा को मारा।
एक दिन जब अन्दर से आवाज यह आई
तू क्यों मुझको ढूंढ रही है घबराई
मैं तेरे ही अन्दर हूँ समायी।
मेरा नहीं है कुछ भी "मोल"।
धन में मुझको न तोल।
मैं बच्चों की मुस्कानों में हूँ।
पति के साथ चाय पीने मेंI
"परिवार" के संग जीने में।
माँ-बाप के आशीर्वाद मेंI
रसोई घर के पकवानों में।
बच्चों की सफलता में हूँI
माँ की निश्छल ममता में हूँ।
हर पल तेरे संग रहती हूँ।
और अक्सर तुझसे कहती हूँ।
मैं तो बस एक "अहसास" हूँ।
बंद कर दे तू मेरी तलाश।
मैं तो हूं तेरे ही पास...... बस तेरे ही पास।